देशभर में पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है। जगह-जगह पानी का संकट और उसे दूर करने के उपायों पर मंथन जारी है। जल संकट के लिए जनसंख्या में बढ़ोत्तरी, आम लोगों द्वारा पानी के दुरुपयोग और सिंचाई के जरिए पानी की कथित बर्बादी करने वाले किसानों को जिम्मेदार ठहराने की कोशिशें भी हो रही हैं। लेकिन क्या सचमुच जल संकट केवल इन्हीं की वजह से खड़ा हुआ है?
प्रकृति से छेड़छाड़ के कारण बारिश का मिजाज बदला जरूर है, लेकिन देश में सौ साल की बारिश की गणना बताती है कि बारिश की मात्रा लगभग समान है। देश के अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में औसत बारिश हर साल जितनी होनी चाहिए, उतनी ही हो रही है। ऋतुचक्र में बदलाव के कारण चार साल में एक बार बारिश का कम या अधिक होना भी प्रकृति-चक्र के अनुरुप ही है। नदी बेसिन के हिसाब से अलग-अलग बेसिनों में प्रति वर्ष जल उपलब्धता 300 घनमीटर से 13,393 घनमीटर तक है।
केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में औसत 1,105 मिलीमीटर की दर से प्रतिवर्ष औसतन 4,000 अरब घनमीटर (बीसीएम) वर्षा होती है। प्राकृतिक वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन के बाद नदियों और जल स्रोतों के माध्यम से औसतन वार्षिक जल उपलब्धता 1,869 बीसीएम है। जिसमें से प्रतिवर्ष 690 बीसीएम सतही जल और 433 बीसीएम भूजल, यानी कुल मिलाकर 1,123 बीसीएम जल उपयोग योग्य होता है।
इसमें से फिलहाल सिंचाई के लिए 688 बीसीएम, पेयजल के लिए 56 बीसीएम और उद्योग, ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों के लिए 69 बीसीएम पानी, यानी कुल मिलाकर 813 बीसीएम पानी का उपयोग किया जा रहा है। वर्ष 2010 में पानी की मांग 710 बीसीएम से बढ़कर 2025 में 843 बीसीएम और वर्ष 2050 में 1180 बीसीएम होने का अनुमान है। हर वर्ष निश्चित मात्रा में बारिश होने के बावजूद पानी का संकट लगातार बढ़ रहा है। नदियां अब साल भर नहीं बहतीं। कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं, तो देश की नदियों, नालों, तालाबों, झीलों, कुओं में अब केवल बारिश के मौसम में ही पानी दिखाई देता है। भूजल सैकड़ों, हजारों फीट नीचे चला गया है।
एक बड़ी आबादी को दिन भर के लिए जरूरी पानी प्राप्त करना ही मुख्य काम बन गया है। नीति आयोग के अनुसार वर्तमान में 60 करोड़ भारतीय अत्यधिक जल तनाव का सामना कर रहे हैं। पानी के सुरक्षित और अपर्याप्त पहुंच के कारण हर साल दो लाख लोग मारे जाते हैं। साल 2030 तक देश की पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुना होने का अनुमान है, जिसके चलते करोड़ों लोगों के लिए पानी की कमी होगी और देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में छह प्रतिशत तक का नुकसान उठाना पड़ेगा।
पीने और निस्तार के पानी की आवश्यकता कुल उपलब्ध पानी का मात्र तीन प्रतिशत है। स्पष्ट है, जहां सबसे कम बारिश होती है वहां भी अगर सही जल-नियोजन किया जाता, तो आबादी दोगुनी होने पर भी पीने के पानी का संकट होना संभव नहीं था। जब हम यह कहते हैं कि देश की पचास प्रतिशत आबादी जल तनाव से गुजर रही है, तो इसका मतलब होता है कि उन्हें प्रतिदिन, प्रति व्यक्ति 40 लीटर से भी कम पानी उपलब्ध होता है। इसके अलावा तीस-पैंतीस प्रतिशत लोगों को केवल जरूरत भर पानी मिलता है।
यानि पीने और घरेलू इस्तेमाल के लिए प्रतिदिन, प्रति व्यक्ति औसत 40 लीटर के हिसाब से देश की 85 प्रतिशत जनता के लिए मात्र 14 बीसीएम पानी का उपयोग हो रहा है। पेयजल के हिस्से के कुल 56 बीसीएम में से 42 बीसीएम पानी 15 प्रतिशत अमीर पी लेते हैं। जाहिर है, पानी की खपत के लिए बढ़ती जनसंख्या नहीं, बल्कि अमीरों की जीवनशैली कारण बनी है। जल संकट के लिए जनसंख्या को जिम्मेदार ठहराना एक साजिश है।
देश की खाद्यान्न सुरक्षा के लिए वर्षा आधारित, सिंचित फसलों को पैदा करना राष्ट्रीय कार्य है। इन फसलों के लिए पानी की खपत राष्ट्रीय उत्पादन के लिए की गई खपत है। किसान सिंचाई के लिए मौजूदा तरीके ही अपनाता है। जब सिंचाई के लिए कम पानी के तरीके ढूंढे जाएंगे, तो किसान भी पानी की किफायत करेगा। सिंचाई के मौजूदा तरीकों में बड़े पैमाने पर पानी का इस्तेमाल होता है, उसमें पानी की बर्बादी भी होती है और उसे नियंत्रित करने की आवश्यकता भी है।
लेकिन अगर सरकार फसलों की कीमत तय करने में पानी के इस्तेमाल का खर्च ठीक से न जोड़े और किसान को फसलों की न्यूनतम लागत भी नहीं मिले, तो किसान को पानी की बर्बादी के लिए दोषी बताना नाइंसाफी है। यह समझना होगा कि सिंचाई के लिए पानी का उपयोग ‘किसान के लिए नहीं, किसान के द्वारा’ होता है।
वर्षा के पानी से भूजल बढ़ाने के लिए जंगलों की तरह खेती का भी योगदान है। जमीन की निंदाई-गुड़ाई, खुदाई तथा फसलों, वृक्षों और फलों की खेती पानी के रिसाव का काम करती हैं। भारत में दस करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा भूमि पर खेती के कारण रिसाव होता है। इस प्रकार होने वाला जल संग्रहण दूसरी किसी भी प्रक्रिया से ज्यादा होता है।
यह किसानों की तपस्या का फल है। वे लोग जिनकी जल संरक्षण में थोड़ी भी भूमिका नहीं है, जिन्होंने शहरों में सीमेंट कंक्रीट के रास्तों से पूरी जमीन ढंककर भूगर्भीय पानी खत्म कर दिया है और एक उपभोक्ता के नाते औद्योगीकरण, जल-प्रदूषण, वाष्पीकरण के लिए जिम्मेदार तापमान-वृद्धि में लगे हैं, कम-से-कम उन्हें पानी की बर्बादी के लिए किसानों को बदनाम करना बंद करना चाहिए।
राष्ट्रीय जलनीति-2012 और खरीफ फसलों के लिए मूल्य नीति आयोग-2015-16 में पानी की खपत के लिए किसानों को जिम्मेदार मानकर उसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है। सिंचाई और पेयजल के लिए भूजल के उपयोग पर ‘लाभार्थी मूल्य चुकाए’ के सिद्धांत को लागू किया गया है। इस सिद्धांत में खेती के लिए पानी और बिजली की प्रति हेक्टेयर उपयोग की सीमा निर्धारित की जाएगी, सभी नहरों, नलकूपों, कुओं पर मीटर लगाकर पानी की खपत मापी जाएगी और अतिरिक्त पानी और बिजली के उपयोग के लिए घरेलू लागत की दर से कीमत वसूली जाएगी। सिंचाई के लिए पानी और बिजली पर मिलने वाली छूट खत्म करने और चावल, गेहूं, कपास और गन्ना जैसी अधिक पानी की फसलें न लें इसलिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) नियंत्रित करने की सिफारिश देश के नीति आयोग द्वारा की गई है।
भारत का विशाल जल भंडार और उसके बाजार की उपलब्धता के कारण कॉरपोरेट्स और सरकार मिलकर पानी का व्यापार करने के लिए नीतियां और कानून बना रहे हैं। पानी को ‘बिकाऊ माल’ में तब्दील करना, उसे राज्य की सूची से समवर्ती सूची में लाना, सुख-भोग अधिनियम-1882 में बदलाव कर भूजल पर सरकार की मालिकी स्थापित करना, उसे व्यापार के लिए कंपनियों को बेचने का अधिकार देना, सिंचाई के लिए बने बांधों के पानी का उद्योग और व्यापार के लिए हस्तांतरण करना, नदी-जोड़ परियोजना द्वारा जल भंडारण और जल परिवहन के लिए पानी उपलब्ध कराना आदि काम पानी के धंधे को फैलाने की खातिर ही किए जा रहे हैं। ‘घर-घर नल, घर-घर जल’ के बिजनेस मॉडल के तहत पानी की बिक्री को बढ़ाने और घर-घर विस्तार करने का प्रयास जारी है।
संविधान में जीवन के अधिकार को संरक्षित करने वाले अनुच्छेद-21 में हवा, पानी और कृषि कार्य का समावेश है। सर्वोच्च न्यायालय ने पेयजल तक पहुंच और सुरक्षित पेयजल के अधिकार को मूलभूत सिद्धांत के रुप में स्वीकार किया है। जाहिर है, संविधान हवा, पानी आदि संसाधनों को बेचने की अनुमति नहीं देता। वैसे भी भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक पृष्ठभूमि में समस्त सृष्टि के जीवन का आधार हवा, पानी की बिक्री करना महापाप माना जाता है। लोगों की इस आस्था और सांस्कृतिक विरासत पर हाथ डालने का काम अंग्रेज भी नहीं कर पाए थे और न ही आजादी के बाद 70 साल में किसी ने किया, लेकिन वर्तमान सरकार इसे करने जा रही है।